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 घोषित आपातकाल और अघोषित आपातकाल का अंतर

राहुल गांधी की मानहानि वाले मामले में 2 साल की सजा होने पर लोकसभा से सदस्यता समाप्त हो गई है। पिछले 2 माह से देश में जिस तरीके की राजनीतिक स्थितियां बनी है। उसको देखते हुए, यह कहा जा सकता है, की पक्ष एवं विपक्ष के बीच में जिस तरीके की तल्खी दिखाई दे रही है।

वह 1975 के आपातकाल की याद दिला रही है। 1975 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में महंगाई के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू हुआ था। इसमें सभी विपक्षी पार्टियां शामिल थी। इस आंदोलन में कांग्रेस का संगठन इंटक भी शामिल हो गया था। इसी बीच 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने रायबरेली के चुनाव को कदाचरण के आरोप में इंदिरा गांधी को दोषी मानते हुए, उनका चुनाव अवैध घोषित कर दिया था।

चुनाव अवैध घोषित होने के बाद सारा विपक्ष इंदिरा गांधी से इस्तीफा देने की मांग करने लगा। 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहरा दिया। लेकिन उन्हें कुछ समय तक प्रधानमंत्री पद पर बने रहने का फैसला भी दिया। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद देश के सभी हिस्सों में इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग को लेकर बड़े पैमाने पर प्रदर्शन शुरू हो गए थे। इससे लगता है कि एक बार फिर 48 वर्ष पुरानी 1975 जैसी स्थितियॉ और चुनुतियों से देश गुजर रहा है। उस समय घोषित आपातकाल था। अब अघोषित आपातकाल बताया जा रहा है।

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क्यों लगा आपातकाल

25 जून को सारे देश में जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे थे। रामलीला मैदान में भी सभी विपक्षी दलों की एक बड़ी सभा जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आयोजित की गई थी। रामलीला मैदान पूरा भरा हुआ था। देश के विभिन्न राज्यों के बड़े बड़े शहरों में प्रदर्शन हो रहे थे। सारे देश में अफरा-तफरी का माहौल था। रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण ने अपने उद्बोधन में कहा, कि सेना और पुलिस सरकार के आदेश को नहीं माने। इसके बाद केंद्र सरकार में अफरा-तफरी का माहौल बन गया। 25 जून की रात को सरकार ने आपातकाल की घोषणा कर दी। प्रेस पर सेंसरशिप लागू करदी गई थी।

रातों-रात बंद हुए हजारों नेता

जैसे ही आपातकाल की घोषणा हुई। उसके बाद देर रात तक अधिकांश छात्र नेताओं, कम्युनिस्ट पार्टी के नेता, जनसंघ और आरएसएस के नेता और प्रचारक, श्रमिक संगठनों के नेता, विपक्षी दलों के नेता जो आंदोलन में शामिल थे। उन्हें गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया। प्रेस को सेंसरशिप के दायरे में लाया गया। उस समय आकाशवाणी और दूरदर्शन पर सरकार काबिज थी. समाचार पत्रों पर सरकार की सेंसरशिप लागू हो गई थी।

सेना और पुलिस को शासन की बात नहीं मानने की जो बात, जयप्रकाश नारायण ने सभा में की थी. सरकार का वह पक्ष भी समाचार पत्रों में प्रकाशित नहीं हो पाया। जिसके कारण लोगों को यह भी नहीं पता लगा कि आपातकाल, इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित हो जाने का अकेला कारण ही नहीं था। बल्कि जयप्रकाश नारायण के यह कहने पर कि सेना और पुलिस सरकार के आदेश नहीं माने। इससे देश में अराजकता फैल सकती थी। इसी से सरकार को आपातकाल लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा। क्योंकि उस समय सारे देश के सैकड़ो स्थान पर सरकार के खिलाफ आंदोलन चल रहा था। लोग सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे थे.कानून व्यवस्था की स्थिति नाजुक थी।

राजनीतिक बंदी

मीसा में जिन लोगों को बंद किया गया था। उन्हें राजनीतिक कैदी के रूप में जेल में रखा गया था। उनके परिवारजनों से उन्हें मिलने की इजाजत कई महीनों तक नहीं मिली। लेकिन जेल में उन्हें राजनीतिक बंदियों की सभी सुविधाएं दी गई. उनके ऊपर कोई अपराधिक प्रकरण भी नहीं बनाए गए। मीसा में जो भी नेता बंद थे। 1977 में आपातकाल समाप्त करने की घोषणा हुई। उसके बाद उन्हें जेलों से रिहा कर दिया गया था। इसमें कुछ ऐसे लोग जेलों में थे। जिनके परिवार मैं मुखिया के अलावा कोई कमाने वाला नहीं था। इन परिवारों को काफी तकलीफों का सामना करना पड़ा था।

अपराधियों को भी मीसा में जेल भेजा

आपातकाल के दौरान हजारों तस्करों, गुंडों और अवैध कारोबार करने वालों को जिला प्रशासन और पुलिस ने मीसा कानून के अंतर्गत जेल भेजा था। जिसके कारण यह पता कर पाना मुश्किल है, मीसा में बन्द व्यक्ति अपराधी था या राजनैतिक बंदी था। उस समय जेलों में अपराधियों को अपराधियों के साथ रखा गया था। राजनीति और संगठनों से जुड़े हुए लोगों को राजनीतिक कैदी के रूप में जेल में अलग रखा गया था।

1975 में जब आपातकाल लगाया गया था। उस समय प्रिंट मीडिया ही एकमात्र माध्यम था। जो निजी क्षेत्र में था। इस पर सेंसरशिप लगा दी गई थी। जनसंपर्क अधिकारी, कर्मचारी और शासकीय अधिकारी समाचार पत्रों में क्या प्रकाशित हो रहा है। इसकी नियमित निगरानी करते थे। यदि उन्हें लगता था, कि सरकार के खिलाफ कुछ ऐसा छप रहा है, जो नहीं छपना चाहिए, उसे हटवा देते थे। जिसके कारण समाचार पत्र के वितरण और प्रिंटिंग में समाचार पत्रों को उस समय काफी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा था।

आपातकाल का भय

1975 के आपातकाल का भय सभी में समान रूप से देखने में आया। सरकारी कर्मचारी समय पर कार्यालय आने लगे। ट्रेन और बसें समय पर चलने लगी। नेता अपने कार्यों के प्रति सजग हो गए। सबको ऐसा लग रहा था, कि कुछ भी गलत होगा तो उसे उसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। अपराधियों को भी मीसा कानून के अंदर जेल में भेज दिया गया। तस्करी और अपराधों पर नियंत्रण लगा। कहा तो यह भी जाता है कि 18 महीने के आपातकाल का समय प्रशासनिक एवं विकास कार्यों के लिए भारत का सबसे बेहतर समय था। हरित क्रांति और जनसंख्या नियंत्रण जैसी योजनाओं का सफल क्रियान्वयन आपातकाल की ही देन था।

अघोषित आपातकाल

पिछले कुछ वर्षों से विपक्षी दल अघोषित आपातकाल का आरोप विपक्षी दल सत्ता पक्ष पर लगा रहे हैं। लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने का आरोप सरकार पर लगाया जा रहा है। संसद का सत्र भी पूर्व की लुलना में कम अवधि का हो गया है। मनी बिल के अंतर्गत सरकार बहुत सारे निर्णय ले रही है। जो नए नियम कानून बन रहे हैं, वह बहुमत के आधार पर बिना चर्चा के पास हो रहे हैं। ईडी, सीबीआई, चुनाव आयोग केन्द्रीय सतर्कता आयोग में सरकार पर मनमाने तरीके से नियुक्तियां करने का आरोप विपक्ष लगा रहा है। न्यायपालिका के साथ भी सरकार का सीधा टकराव देखने को मिल रहा है। सरकार जजों की नियुक्ति भी खुद करना चाहती है। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद पिछले 9 वर्षों में किसी को नहीं दिया गया। लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद भी किसी को नहीं मिला।

2014 के बाद से मीडिया का स्वरुप भी एकदम बदला हुआ है। मीडिया अब सरकार से सवाल नहीं करता है। मीडिया लगातार विपक्ष को निशाने पर ले रहा है। 2014 के पहले का मीडिया और 2014 के बाद के मीडिया को लेकर भी सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच में आरोप-प्रत्यारोप होते रहते हैं। विपक्ष भारतीय लोकतंत्र से धीरे-धीरे गायब होता जा रहा है।

जिस तरह से विपक्षियों के ऊपर अपराधिक मुकदमे बनाकर, उन्हें राजनीतिक मोहरे की तरह उपयोग में लाया जा रहा है। विपक्ष के अधिकांश नेताओं के ऊपर भ्रष्टाचार के अपराधिक प्रकरण दर्ज किए गए हैं। कई राज्यों की सरकारें दलबदल कराकर बदली गई हैं। भ्रष्टाचार की जॉच के नाम पर विपक्षी नेताओं को लगातार प्रताड़ित कया जा रहा है।

विपक्षी दलों और स्वयंसेवी संगठनों पर जिस तरीके से सरकार अपराधिक कार्यवाही कर रही है। उनके आर्थिक स्त्रोत को बंद कर रही है। लोगों को महीनों जेलों में बंद रखा जा रहा है। पी चिदावरम, लालू यादव, कन्हैया कुमार, सतेन्द्र जैन, पार्थ चटर्जी, संजय राऊत, अनिल देशमुख, नबाव मलिक, अनिल परब, मनीष सिसोदिया के अतिरिक्त सैकड़ों समाजसेवी, धार्मिक एवं छात्र संगठनों से जुड़े लोगों को कई महीनों तक जेल में बंद रखा गया है। जो लोग सरकार से सहमत नहीं होते हैं, उन्हें देशद्रोही बना कर अपमानित किया जाता है। संवैधानिक संस्थाएं सरकार के इशारे पर काम कर रही हैं।

नियमों को बिना सदन की चर्चा और अनुमति के मनमाने तरीके से बहुमत के आधार पर बदला जा रहा है। विपक्षी नेताओं को महीनों जेलों में डाला जा रहा है। उन्हें अपराधी बनाकर राजनीतिक प्रक्रिया से दूर करने का प्रयास किया जा रहा है। इस तरह के आरोप विपक्ष लगाते हुए यह कहने लगा है, ऐसा तो घोषित आपातकाल में भी नहीं हुआ था। जो अब अघोषित आपातकाल में हो रहा है। इसे तानाशाही और हिटलर शाही के रूप में भी विपक्ष इसे प्रचारित कर रहा है। राहुल गांधी की सदस्यता समाप्त होने के बाद सारा विपक्ष सरकार के खिलाफ एकजुट हो रहा है। उससे एक बार फिर 1975 जैसी स्थितियॉ पैदा हो गई है। मंहगाई, बेरोजगारी से आम नागरिक त्रस्त है। आम आदमी टेक्स और कर्ज के बोझ से कराह रहा है। सारी दुनिया में आर्थिक मंदी और तीसरे विश्व युद्ध के हालात देखे जा रहे हैं। इस समय देश की आंतरिक स्थिति चिंता उत्पन्न करने वाली है।

 

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